Monday 2 April 2012

SOMETHING FOR HUMAN BEINGS BY KESAV


मैं किसी प्राणी के प्रारभ्य को नहीं जानता और न ही बनाता हु , ना मैं किसी प्राणी के कर्म का या कर्म फल के हिसाब में दखल नहीं देता . प्राणी के अपने कर्म ही उसके कर्म फल का निर्माण करते है , प्राणी जैसे कर्म करेगा उसका प्रारभ्य वैसा ही होगा , प्राणी के अच्छे कर्म तथा बुरे कर्म का हिसाब ही प्रारभ्य है , अपने पुण्य कर्म के फल स्वरुप सुखा तथा बुरे कर्मो के फल स्वरुप दुख प्राणी को इसी  जन्म में भोगने  पड़ते  है , तुम अपने मन  में इस  बात  को बैठा  लो  की तुम  जिस  नियत से कर्म करोगे  तुम्हे उसी नियत के अनुसार ही या उसी नियत के सापेछ ही फल मिलेगा ..... कर्म का यह अटल विधान है की प्राणी का कोई भी कर्म नस्ट नहीं होता है , मनुष्य को अपने हर कर्म के अनुसार कर्म का फल अवश्य ही मिलेगा , .
मनुष्य को अपने कर्म का फल या प्राणी के कर्म के अनुसार उसके प्रारभ्य में लिख दिया जाता है इसी कारण  मनुष्य हर जन्म में अपने ही कर्म के बंधन में बंध जाता है और इसी बंधन में बंध जाने के कारण मनुष्य आवागमन अर्थात जन्म - जन्मान्तर के चक्र में फस जाता है अथवा फसा रहता है ...... मनुष्य अपने एक जन्म में जो कर्म करता है उन कर्मो के फल स्वरुप अर्थात उन कर्मो के फल के रूप में पाप और पुण्य दोनों होते है ,,,,, बस अंतर इतना होता है की कभी पाप अधिक होता है तो कभी पुण्य .....दोनों का सुख-दुःख भोगते हुए मनुष्य अपने नए  जीवन  में जो कर्म करता है एक  बार  फिर  से उसका हिसाब पाप और पुण्य के खाते  में एक नए  सिरे  से लिख दिया जाता है ..........इस  तरह  इस नए  कर्मो को भोगने  के लिए तथा करने  के लिए एक और नया  जन्म मिलता  है और जन्म- जन्मान्तर का यह सिलसिला चलता रहता है .......
    इस चक्र से छुटकारा पाने के लिए मनुष्य को स्थितप्रज्ञ होना पड़ता है तब मनुष्य को मोक्ष की प्राप्ति होती है .......  

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